कांग्रेस महासचिव और यूपी प्रभारी प्रियंका गांधी ने आगामी चुनावों में महिलाओं को 40 फीसदी टिकट देने का ऐलान किया है। उन्होंने कहा है कि यह निर्णय पार्टी में आम सहमति से हुआ है। यदि मेरी मानी गई तो आने वाले समय में यह आरक्षण और बढ़ेगा। इसलिए यहां पर यह सवाल मौजूद है कि जब संख्या बल ही लोकतंत्र, सियासत और आरक्षण का आधार है तो फिर आधी आबादी के लिए 50 फीसदी टिकट यानी 50 फीसदी आरक्षण क्यों नहीं? और सिर्फ टिकट में ही क्यों, पहले अपनी पार्टी के संगठनात्मक ढांचे में तो महिलाओं के लिए 40 फीसदी (50 फीसदी अपेक्षित!) जगह बनाइए।
एक बात और, प्रियंका गांधी चाहती हैं कि यूपी की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़े। उनका निर्णय उन महिलाओं के लिए है, जो पीड़ित हैं या दुश्वारियों का सामना कर रही हैं और बदलाव चाहती हैं। इसलिए सवाल फिर वही कि सिर्फ यूपी में ही क्यों, अन्य प्रदेशों या फिर पूरे देश में भी क्यों नहीं? और सिर्फ राजनीति में ही क्यों, प्रशासनिक ढांचे में भी क्यों नहीं? उन्हें सलाह है कि पहले आप उन राज्यों में से आधे या एक तिहाई राज्यों में महिला मुख्यमंत्री बनाएं। वहां के मंत्रिमंडल में, प्रशासनिक पदों पर और राज्यस्तरीय संगठन में महिलाओं के लिए 40 प्रतिशत (50 प्रतिशत अपेक्षित है!) जगह तो बनाएं।
इसके अलावा, 24 अकबर रोड स्थित पार्टी मुख्यालय में उपलब्ध सांगठनिक पदों, विभिन्न प्रदेशों के प्रभारियों आदि में महिलाओं को समुचित जगह तो फटाफट दें, ताकि यूपी की जनता को लगे कि यह आपकी चुनावी चाल नहीं है, बल्कि आप इसके लिए वाकई गम्भीर हैं। यदि इस बात पर पार्टी के विभिन्न स्तरों पर तड़ातड़ अमल हुआ तो निःसंदेह इस बात की क्रेडिट आपको और आपकी पार्टी को मिलेगी। इससे कांग्रेस के समर्थक और विरोधी दलों की पेशानी पर जब बल पड़ेगा तो महिलाओं की सहानुभूति कांग्रेस से बढ़ेगी।
फिलवक्त, उज्जवला योजना और तीन तलाक नियंत्रण कानूनों से महिलाओं का वर्ग पूरी तरह से पीएम नरेंद्र मोदी और भाजपा सरकार पर फिदा है। हां, राज्यों में महिलाओं को यदि इससे भी अच्छा विकल्प मिला है तो उन्होंने 'कमल' का मोह त्याग कर अन्य बटम भी दबाए हैं। इसलिए प्रियंका गांधी की नई सियासत के लिए पर्याप्त स्पेस की गुंजाइश है, यदि संसद व विधान मंडलों में महिलाओं को मात्र 33 प्रतिशत आरक्षण देने-दिलाने हेतु पार्टी नेतृत्व के पुराने दांव-पेंचों को भी यदि मतदाता भुला दें तो!
बहरहाल, जिस प्रकार से राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने को लेकर प्रियंका गांधी चिंतित दिखाई दे रही हैं, उसी प्रकार से यदि वो सचमुच अपने मुद्दे पर अडिग रहीं तो राजनीतिक परिदृश्य में महिला प्रतिनिधियों की हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए पिछले दशक में प्रस्तावित आरक्षण एक महत्त्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए महिलाओं को लोकसभा और सभी राज्यों की विधान सभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने संबंधी महिला आरक्षण विधेयक को भी तत्काल पारित किया जाना आवश्यक है। राजनीति व अन्य विविध क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए आवश्यक है कि समाज में प्रत्येक स्तर पर महिला सशक्तीकरण तथा उनकी सामुदायिक भागीदारी के लिए प्रयास किए जाएं, ताकि उनमें आत्मविश्वास, नेतृत्व क्षमता आदि गुणों का विकास हो।
यह ठीक है कि सदियों से महिलाओं को चारदीवारी तक सीमित रखा गया है। लेकिन अब महिलाओं में जागरूकता आई है। इसलिए जरूरत है महिलाओं की राजनीति में भागीदारी बढ़ाने की। इसके लिए जरूरी है राजनीतिक पार्टियां संसद से लेकर पंचायत स्तर तक उनकी भागीदारी बढाएं। उनके लिए जागरूकता शिविर लगाए जाएं। सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित हों, तभी महिलाएं भी स्वेच्छा से आगे आ सकेंगी। वैसे तो अभी पंचायत स्तर पर महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है, परन्तु उनके कामकाज उनके पति करते हैं। ऐसे में उनका विकास नहीं हो पाता। अब विधानमंडल और संसद में भी उन्हें अविलम्ब आरक्षण देना चाहिए।
महिला सशक्तीकरण वर्तमान समय की एक महती आवश्यकता भी है। क्योंकि भारतीय राजनीति में आनुपातिक रूप से महिलाओं की सहभागिता कम है। यूं तो 73वें तथा 74वें संविधान संशोधन के फलस्वरूप आरक्षण प्रावधानों से पंचायती राज में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है, लेकिन इससे भी आगे प्रयासों की आवश्यकता है। हो सके तो संसद व राज्य विधानमण्डलों में महिलाओं की आधी आबादी को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया जाए। पंचायती राज संस्थाओं में निर्वाचित महिलाओं को राजनीति में आगे बढ़ाया जाए। महिलाओं को राजनीति में सशक्त करने के लिए सबसे अहम कदम शिक्षा में सहभागी बनाना है। इसके लिए विशेष अभियान चलाया जाना चाहिए।
देखा जाए तो राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए पंचायती राज संस्थाओं के समान लोकसभा व राज्यसभा के साथ साथ विधान सभाओं व विधान परिषदों में भी महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीट आरक्षित करनी चाहिए। क्योंकि वर्तमान में लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व केवल 14.8 प्रतिशत है। साथ ही महिलाओं को उनके राजनीतिक अधिकारों के प्रति जागरूक करना पड़ेगा, ताकि वे राजनीति में हिस्सा लें।
खास बात यह है कि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिये स्वयं महिलाओं को ही आगे आना होगा और अपनी योग्यता साबित करनी होगी। इसके लिए जहां वे रहती हैं, यदि आस-पास कोई भी राजनीतिक कार्यक्रम हो, तो वे वहां जरूर जाएं। इस तरह धीरे-धीरे राजनीति की समझ उनमें विकसित होने लगेगी। शुरुआत में स्थानीय स्तर पर जनहित के मुद्दों को लेकर वे आगे आएं और नगर निकायों के चुनावों में टिकट के लिए अपनी दावेदारी प्रस्तुत करें। उसके बाद महिलाएं अपनी योग्यता के आधार पर जीत हासिल कर विधान मंडल या संसद तक पहुंच सकती हैं। राजनीतिक दलों को भी पार्टी के निजी हित को छोड़ कर योग्य महिला उम्मीदवार को टिकट देना चाहिए।
वर्तमान पितृसत्तात्मक ढांचे को खत्म करके महिला शक्ति को सशक्त करना चाहिए। समाज में व्याप्त पर्दा प्रथा, घूंघट प्रथा व लैंगिक भेदभाव को खत्म करके महिलाओं को राजनीति में भागीदारी का मौका देना चाहिए। स्थानीय स्वशासन में राज्य सरकार ने महिलाओं को 33 से 50 प्रतिशत तक आरक्षण देकर महिलाओं को राजनीति में भागीदारी देने की सराहनीय पहल की है। इसे आगे बढ़ाया जाना चाहिए।
वहीं, महिलाओं को उचित शिक्षा प्रदान कर उनमें नेतृत्व क्षमता का विकास करना आवश्यक है। प्रतिनिधि संस्थाओं में संख्या के अनुपात में वृद्धि की जाए। महिलाओं को इतिहास में दर्ज ऐसी महिलाओं के बारे में बताया जाना चाहिए, जिन्होंने देश और समाज के लिए बड़ा काम किया हो। वर्तमान में महिलाओं की राजनीति में भागीदारी के पीछे उसका पति, पुत्र या पिता का चेहरा होता है। पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं का वर्चस्व आज भी स्वीकार नहीं है। महिलाओं को अपना प्रभाव बढ़ाना होगा तथा राजनीतिक शक्ति का सही उपयोग सीखना होगा।
पहले कदम के तौर पर, महिलाएं चूल्हे-चौके तक न बंधकर आत्मनिर्भर बनें और अपनी नेतृत्व क्षमता विकसित करे। वहीं, राजनीतिक दल भी महिला उम्मीदवारों को टिकट देने में प्राथमिकता दिखाएं। पंचायत में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण निर्धारित है, उसी तर्ज पर संसद में भी महिला आरक्षण निर्धारित करने के लिए महिला आरक्षण बिल पास करने में तत्परता दिखाई जाए।
लेकिन, दुःखद बात यह है कि नेताओं की कथनी और करनी में अंतर है। प्रियंका गांधी की पार्टी कांग्रेस का भी वही हाल है। भारत के लोकतंत्र के लिए यह दु:खद ही है कि पिछले सत्तर सालों में लोकसभा में चुनी हुई महिलाओं की मौजूदगी दोगुनी भी नहीं हुई है। बड़े और प्रमुख राजनीतिक दल महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने और लोकसभा व विधानसभाओं में तैंतीस फीसदी आरक्षण देने की चाहे जितनी वकालत करें, लेकिन उनकी कथनी और करनी में फर्क बरकरार है। कांग्रेस-भाजपा इस अहम मुद्दे को घसीटने के लिए समान रूप से दोषी हैं। इसलिए राजनीति व अन्य विविध क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए आवश्यक है कि समाज में प्रत्येक स्तर पर महिला सशक्तीकरण तथा उनकी सामुदायिक भागीदारी के लिए प्रयास किए जाएं, ताकि उनमें आत्मविश्वास, नेतृत्व क्षमता आदि गुणों का विकास हो।