दसवीं के फेर में पड़े अभिषेक बच्चन पास हुए या फेल... फिल्म देखने से पहले पढ़ें रिव्यू
मनोज वशिष्ठ, नई दिल्ली। देश की राजनीति में साहबों की शिक्षा का स्तर हमेशा के बहस का विषय रहा है। देश में राजनीति की हवा कुछ ऐसी है कि जन प्रतनिधियों की शैक्षिक योग्यता बहुत मायने नहीं रखती है और साहब भी यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि उनकी पढ़ाई-लिखाई उन्हें कुर्सी तक पहुंचने का रास्ता नहीं दे सकती, उसके लिए जिस शिक्षा की जरूरत है, वो किसी किताब में नहीं लिखी होती।
यही सोच पीढ़ी-दर-पीढ़ी वैचारिक स्तर पर ट्रांसफर होती रहती है और इस कदर हावी हो जाती है कि अंगूठा छाप होना आत्मविश्वास में किसी तरह की कमी नहीं होने देता, बल्कि जो कई साल स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय में गुजारकर सरकारी सिस्टम में अफसर बना है, वो इन जन प्रतिनिधियों के सामने खुद को फीका महसूस करने लगता है। अशिक्षा का ऐसा उजला रूप सियासत के अलावा किसी और पेशे में नजर नहीं आता।
नेटफ्लिक्स पर आयी अभिषेक बच्चन, यामी गौतम और निमरत कौर की फिल्म दसवीं राजनीति, शिक्षा और नजरिए के मिश्रण का सिनेमाई रूप है। फिल्म में एक नितांत आवश्यक विषय पर चुटीले अंदाज में चोट करने की कोशिश की गयी है। मुद्दा सही उठाया गया है, मगर उसे अंजाम तक पहुंचाने का रास्ता थोड़ा डगमगा गया है। फिल्म की कहानी काल्पनिक प्रदेश हरित प्रदेश के मुख्यमंत्री गंगा राम चौधरी को केंद्र में रखकर कही गयी है। हरित प्रदेश फिल्म के हिसाब से काल्पनिक है, मगर राजनीतिक गलियारों के लिए यह नाम अनजान नहीं है। फिल्म में अब काल्पनिक दिखाये गये इस प्रदेश को बनाने की मांग हकीकत में होती रही है।
बहरहाल, शिक्षा को सियासत के लिए गैर जरूरी मानने वाले सीएम गंगा राम चौधरी को एक शैक्षिक घोटाले के लिए न्यायिक हिरासत में भेजा जाता है और जेल में पहुंचकर आठवीं पास सीएम को उसकी योग्यता के अनुसार कारपेंटरी का काम दिया जाता है तो उसके अहम को ठेस पहुंचती है, जिसे चोट पहुंचाने का काम करती है जेल सुपरिंटेंडेंट ज्योति देसवाल। गंगा राम जेल में रहकर दसवीं पास करने की ठानता है।
जेल जाने से पहले गंगा राम पत्नी विमला देवी को अपनी गैरमौजूदगी में सीएम की कुर्सी पर बिठा देता है। महत्वाकांक्षी विमला हाथ में आये इस मौके को जाने देने के लिए तैयार नहीं है। फिल्म गंगा राम की दसवीं पास करने की जिद और कोशिशों और विमला देवी की साजिशों के साथ आगे बढ़ती है।
राम बाजपेयी की कहानी पर सुरेश नायर, रितेश शाह और संदीप लेजेल ने स्क्रीनप्ले-डायलॉग लिखे हैं। निर्देशन तुषार जलोटा का है। दसवीं राजनीति और शिक्षा की रस्साकशी को दिखाने वाली कोई यूनिक फिल्म नहीं है। यह सियासत और समाज के बीच उन घटनाओं से निकली फिल्म है, जो हम अपनी आंखों से देखते आ रहे हैं, इसीलिए इस फिल्म की लेखन टीम पर इसे कड़क बनाने की बड़ी जिम्मेदारी थी। जो घटनाएं अनजान नहीं हैं, उन्हें देखते हुए भी दर्शक चौंक जाए, यही लेखन टीम की उपलब्धि है। हालांकि, इस मोर्चे पर फिल्म थोड़ा निराश करती है।
दसवीं की कहानी में ह्यूमर की जो परत है, वो एक वक्त के बाद थोपी हुई लगती है। फिल्म में कुछ लाइंस चटकदार हैं, मगर संवादों में ह्यूमर का निरंतर प्रवाह नहीं रहता। अगर किरदारों की बात करें तो सीएम और दसवीं पास करने के लिए जूझ रहे गंगा राम चौधरी के किरदार में अभिषेक बच्चन ने रंग जमाने की पूरी कोशिश की है, जिसमें यामी गौतम और निमरत कौर ने साथ दिया है। लेखन की सीमाओं में इन कलाकारों ने ठीक काम किया है। दसवीं के साथ एक दिक्कत यह भी है कि ओटीटी स्पेस में इस तरह के कंटेंट की कमी नहीं है, जो काफी इंगेजिंग है। इसमें कोई शक नहीं कि दसवीं एक सकारात्मक फिल्म है, जिसे कलाकारों की परफॉर्मेंस के लिए देखा जा सकता है।