बाजार को समर्पित सिनेमा में नहीं दिखती सरदार भगत सिंह की असली विचारधारा, पढ़ें यह खास लेख
बाजार को समर्पित सिनेमा में नहीं दिखती सरदार भगत सिंह की असली विचारधारा, पढ़ें यह खास लेख
नई दिल्ली, जेएनएनत् ँप्aुaू एग्हुप् ेजम्ग्aत् २०२२: भगत सिंह जैसे अध्ययनशील और सशक्त वैचारिक छवि वाले नायकों को परदे पर उतारना आसान नहीं है। विनोद अनुपम बता रहे हैं कि उनके व्यक्तित्व को सफलता के फार्मूले के रूप में नहीं, बल्कि देशभक्ति के जज्बे से ही फिल्माया जा सकता है...
नई पीढ़ी जिसने ‘१९६२ की हार तो दूर ‘१९७१ की जीत भी नहीं देखी है। उसके लिए देशभक्ति के मायने बदल चुके हैं। उसके लिए देशभक्ति बलिदान नहीं, सेलिब्रेशन का मामला है। ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ सुनकर उनकी आंखों में अब आंसू नहीं आते, ‘जय हो’ सुनकर उनके कदम थिरकते हैं। ऐसे में बाजार को समर्पित सिनेमा के लिए भी या तो देशभक्ति बेमतलब हो गई या फिर देशभक्ति ने मायने बदल गए। आज देशभक्ति के नाम पर ‘रंग दे बसंती’ या ‘चक दे इंडिया’ ही हमारे लिए बड़ी फिल्में हैं, निश्चय ही जिनमें मनोरंजन की मिठास को सुपाच्य बनाने के लिए देशभक्ति का उपयोग भर ही किया गया है।
पहले देशभक्ति के संदेश को लेकर फिल्में बनती थीं तो मनोरंजन उसका गौण पक्ष रहता था। मनोज कुमार की ‘शहीद’ को याद करें। यह फिल्म १९६५ में रिलीज हुई थी। इसके पहले १९६३ में भी ‘शहीद भगत सिंह’ बनी थी, जिसमें मुख्य भूमिका शम्मी कपूर ने निभाई थी, लेकिन आज वह फिल्म याद भी नहीं की जाती। विचारणीय है कि वर्षों के सन्नाटे के बाद फिल्मकारों को २००२ में एक बार फिर भगत सिंह की याद आती है, जब भारतीय राजनीति में राष्ट्रवाद की अनुगूंज सुनाई देने लगती है।
गौरतलब है कि स्वाधीनता आंदोलन के महान क्रांतिकारी भगत सिंह के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक साथ पांच फिल्में बननी शुरू होती हैं और इनमें से तीन तो एक ही साल में रिलीज होती हैं, जो तीसरे ही सप्ताह में किसी आम फिल्म की तरह भुला दी जाती हैं। इसे दर्शकों की सीमा कह टाला नहीं जा सकता, यह हिंदी सिनेमा की सीमा है। वास्तव में भारतीय दर्शकों की रुचि इतनी विकसित अवश्य रही है कि अपने लिए वह अच्छी फिल्म का चयन कर सकें। रिचर्ड ऐटनबरो ने महात्मा गांधी पर लगभग साढे़ तीन घंटे की फिल्म बनाई। फिल्म में राष्ट्रभक्ति व स्वाधीनता संग्राम में उनके योगदान को क्रमबद्ध तरीके से प्रस्तुत किया गया। फिल्म में प्रेम व नृत्य जैसे तत्वों का समावेश नहीं था, बावजूद इसके भारतीय दर्शकों ने टिकट लेकर फिल्म समूह में देखी। आज भी जब टेलीविजन पर यह फिल्म आती है तो लोग समय सुरक्षित रखने की कोशिश करते हैं।
वास्तव में भगत सिंह जैसे ऐतिहासिक चरित्र के फिल्मांकन में सबसे महत्वपूर्ण ईमानदारी होती है। आप सिर्फ तकनीकी कुशलता से भगत सिंह को नहीं फिल्मा सकते। एक आस्था या प्रतिबद्धता चाहिए, जो वेद राही की ‘वीर सावरकर’ और श्याम बेनेगल की ‘बोस’ में दिखती है। भगत सिंह जैसे चरित्र को सफलता के फार्मूले के रूप में नहीं, देशभक्ति के जज्बे से ही फिल्माया जा सकता है। सच्चाई यही है कि ऐटनबरो, वेद राही या श्याम बेनेगल ने स्वाधीनता सेनानियों के फिल्मांकन में जो ईमानदारी दिखाई, उसका एकांश भी राजकुमार संतोषी और गुड्डू धनोआ भगत सिंह के फिल्मांकन में नहीं दिखा सके। अव्वल तो उन्होंने पहले ही तय कर लिया कि यह फिल्म भगत सिंह, उनके संदेशों अथवा स्मृतियों को जीवंत करने के लिए नहीं, बाजार के लिए बनानी है। इसी सोच के साथ उन्होंने कथा-पटकथा के निर्माण में भगत सिंह के व्यक्तित्व और कृतित्व के वैसे हिस्सों पर जोर दिया जो भगत सिंह को, उनके विचारों को चाहे जिस हद तक प्रदर्शित करते हों, एक आम नायक की तरह बाजार को, आम दर्शकों को प्रभावित कर सके। इसी चतुराई ने दर्शकों को इन फिल्मों से विरक्त कर दिया।
इसी का थोड़ा और प्रबल रूप राकेश ओमप्रकाश मेहरा की ‘रंग दे बसंती’ में देखने को मिला, जिसमें भगत सिंह की छाया में एक समकालीन नायक गढ़ दिया जाता है, जो समाज बदलने के लिए हत्या और आतंक का रास्ता अख्तियार करता है। फिल्मकार यह याद रखने की आवश्यकता नहीं समझते कि भगत सिंह ने असेंबली में खासतौर पर धमाके वाले बम फेंके थे, ताकि किसी को कोई चोट न पहुंचे। भगत सिंह गांधी जी की तरह अहिंसक नहीं थे, लेकिन क्रांतिकारी धारा से जुडे़ होने के बावजूद हिंसा उनके स्वभाव में नहीं थी, पर सिनेमा को नायक चाहिए, जो दर्शकों की भावनाओं को तुष्ट कर सके।
गुड्डू धनोआ की ‘२३ मार्च १९३१: शहीद’, जिसमें बाबी देओल ने भगत सिंह और सनी देओल ने चंद्रशेखर आजाद की भूमिका अभिनीत की थी या फिर राजकुमार संतोषी की ‘द लीजेंड आफ भगत सिंह’, जिसमें अजय देवगन ने भगत सिंह और अखिलेंद्र मिश्र ने चंद्रशेखर आजाद की भूमिका निभाई थी, में समेकित संजीदा प्रस्तुतिकरण का अभाव खटकता है। ‘२३ मार्च १९३१: शहीद’ के नाम से बनी गुड्डू धनोआ की फिल्म की पूरी पटकथा में भगत सिंह को उनकी संपूर्ण वैचारिकता में प्रदर्शित करने का प्रयास नहीं दिखता, बल्कि सिर्फ ऐसी कोशिशें नजर आती हैं जिनसे बाबी या सनी के हीरोइज्म में चार चांद लग सकें। कोई दर्शक अगर फिल्म में भगत सिंह को देखने जाना तय करता है तो निश्चय ही वह वहां भगत सिंह को ही देखना चाहता हैै। दर्शक जाते हैं भगत सिंह के राजनीतिक दर्शन को जानने-समझने और उन्हें मिलते हैं नायिका से अनुराग प्रकट करते भगत सिंह। स्वाभाविक है दर्शकों का निराश होना।
राजकुमार संतोषी की फिल्म में भगत सिंह के विचारों को लेकर कुछ द्वंद्व उभारने की कोशिश की गई थी। ‘द लीजेंड आफ भगत सिंह’ में भगत सिंह के विचारों और जीवन पर किए शोध की झलक भी मिलती है, लेकिन गांधी के धुर विरोध के कारण यह फिल्म भी सीमित रह जाती है। स्वाधीनता की लड़ाई में एक-दूसरे के अवदानों को किसी तराजू पर तौला नहीं जा सकता, लेकिन संतोषी के भगत सिंह के साथ ऐसी स्थितियां पैदा कर दी जाती हैं कि दर्शक गांधी को बुरा-भला कहने तक उत्तेजित हो जाते हैं। वैचारिक विमर्श से भरसक परहेज करने वाले हिंदी सिनेमा के लिए भगत सिंह जैसे अध्ययनशील और सशक्त वैचारिक छवि वाले नायक को परदे पर उतारना सहज नहीं है।