Jhund Hindi Review : अमिताभ बच्चन ने सिखाया 'फुटबॉल' के साथ असल जिंदगी का खेल, एक बार फिर पर्दे पर छाए सैराट के डायरेक्टर
स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। Jhund Hindi Review : जिंदगी को संवारने के लिए सही मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। फिल्म के आखिर में एक दृश्य है जिसमें हवाई जहाज उड़ान भर रहा होता है और नीचे एयरपोर्ट की बाहरी दीवार पर लिखा है इस दीवार को लांघना सख्त मना है। दीवार के उस पार घनी झुग्गी झोपड़ी बसी होती है। नागराज पोपटराव मंजुले ने झुंड ने जरिए सांकेतिक रूप से झुग्गी झोपड़ी के उन वंचितों की आवाज को उठाया है जिन्हें समाज द्वारा थोपी गई बेड़ियों को तोड़ने और आसमान में ऊंची उड़ान भरने का बमुश्किल मौका मिलता है। यह फिल्म स्पोर्ट्स कोच विजय बरसे की जिंदगानी से प्रेरित है जिन्होंने 'स्लम सॉकर' एनजीओ की स्थापना की हैं। इस एनजीओ के जरिए विजय ने झुग्गी-झोपड़ी के बच्चों में फुटबॉल को लोकप्रिय बनाकर उनकी जिंदगी को संवारा है।
कहानी का आरंभ झोपड़ पट्टी में रहने वाले युवाओं की गतिविधियों से होता है। यह झुंड में बाइक पर निकलते हैं और रास्ते में महिलाओं के गले की चेन, राहगीरों के मोबाइल पर हाथ साफ करते हैं। मालगाड़ी से कोयला चुराते हैं। इनमें कोई कूड़ा बीनता है या गांजा भी बेचता है। कुछ को नशे की भी लत होती है। हालांकि पढ़ाई-लिखाई के नाम कोई भी पांचवीं से ज्यादा शिक्षित नहीं है पर हेयर स्टाइल फिल्मी हीरो से कम नहीं है। इस झुंड का नायक डॉन उर्फ अंकुश मसरान (अंकुश गेदम) है जिसका पिता शराबी है और मां घरों में काम करती है। एक बार स्कूल के पिछले गेट से निकलते समय बारिश में स्पोर्ट्स कोच विजय बोराड़े (अमिताभ बच्चन) झुग्गी झोपड़ी के झुंड को प्लास्टिक के डिब्बे से फुटबाल खेलते देखते हैं। विजय का रिटायरमेंट करीब होता है। वह इन बच्चों को प्रतिदिन आधा घंटा फुटबाल खेलने के बदले पांच सौ रुपये देने का ऑफर देते हैं। पैसों के लालच में वे खेलने को राजी हो जाते हैं। फुटबाल खेलने की लत लगाने के पीछे विजय के नेक इरादे होते है। खेल से जुड़ने के बाद किस प्रकार इन बच्चों में बदलाव आता है? विजय को अपने मकसद में कामयाब होने के लिए किस प्रकार की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। डॉन का अतीत किस प्रकार से उसके खेल करियर में बाधक बनता है कहानी इन प्रसंगों के साथ आगे बढ़ती है।
चार मार्च (शुक्रवार) को सिनेमाघरों में रिलीज होने वाली झुंड की कहानी, स्क्रिन प्ले, डायलॉग और निर्देशन नागराज पोपटराव मंजुले का हैं। उन्होंने फिल्म में अभिनय भी किया है। मंजुले ने इससे पहले वर्ष 2016 में रिलीज ऑनर किलिंग मुद्दे पर आधारित मराठी फिल्म सैराट का निर्देशन किया था। सैराट की तरह झुंड भी उनकी शानदार कृति है। झोपड़ पट्टी में रहने वाले लोगों की जिंदगी, उनकी मुश्किलें, सपनों, समस्याओं और उनके प्रति बाहरी दुनिया को सोच को नागराज ने बहुत गहराई से दर्शाया है। इंटरवल से पहले फिल्म सधे तरीके से आगे बढ़ती है। झोपड़ पट्टी और कॉलेज के बच्चों के बीच स्क्रीन पर फुटबॉल मैच देखते हुए ऐसा लगता है कि वास्तव में मैच चल रहा है। हार-जीत को लेकर दर्शकों में व्यग्रता रहती है। दर्शक वर्ग में मौजूद झोपड़पट्टी के लोगों की प्रतिक्रियाओं को बेहद रोचक तरीके से चित्रित किया है। इसी तरह एयरपोर्ट पर डॉन के सिक्योरिटी चेक का सीन बिना डायलॉगबाजी के बहुत कुछ कह जाता है। अजय अतुल द्वारा संगीतबद्ध गाना आया ये झुंड है.. कर्णप्रिय हैं।
विजय बोराड़े की भूमिका को अमिताभ बच्चन ने चुस्ती के साथ निभाया है। उनके सभी उम्र के प्रशंसक यह फिल्म पसंद करेंगे। फिल्म के ज्यादातर कलाकार नवोदित और झुग्गी झोपड़ी से ही है और सभी का काम उल्लेखनीय है। स्क्रीन पर वह कहीं से ही बनावटी नहीं लगते हैं। डॉन की भूमिका में अंकुश गेदम ने किरदार की मनोदशा, खेल के प्रति लगाव और तकलीफों को समुचित तरीके से आत्मसात किया है। ‘सैराट’ फेम आकाश तोषर और रिंकू राजगुरू भी कहानी का हिस्सा हैं। आकाश खलनायक के तौर पर जंचे हैं।
यह फिल्म कड़वी वास्तविकता को दर्शाते हुए कहीं हंसाती है तो कहीं झकझोरती भी है। लंबी अवधि के बावजूद आप कहानी साथ बंधे रहते हैं। फिल्म के एक दृश्य में अमिताभ बच्चन का किरदार कहता है कि स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी की दीवारों के उस पार भी एक बहुत बड़ा भारत रहता है जिसके बारे में हमें सोचना होगा। संदेश स्पष्ट है कि अगर दिशाहीन बच्चों को सही मार्गदर्शन मिल जाए तो उनकी जिंदगी भी संवर सकती हैं और वे मुख्यधारा का हिस्सा बन सकते हैं। फिल्म के दूसरे हाफ में कहीं-कहीं मराठी में डायलाग हैं। उनके भाव को आसानी से समझा जा सकता है, लेकिन उसका हिंदी में सबटाइटिल देना चाहिए।