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Gangubai Kathiawadi Review: संजय लीला भंसाली के भव्य सिनेमाई अनुभव के बीच आलिया भट्ट की दमदार अदाकारी

स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। मदद चाहती है ये हव्वा की बेटी

यशोदा की हमजिंस, राधा की बेटी

पयम्बर की उम्मत, जुलयखां की बेटी

जिन्हें नाज है हिन्द पर वो कहां हैं

काफी समय पहले इन पंक्तियों के जरिए साहिर लुधियानवी ने सवाल उठाए थे। सिनेमाघरों में रिलीज फिल्‍म गंगूबाई काठियावाड़ी के एक दृश्‍य में इन पंक्तियों को उद्धत करते हुए संजय लीला भंसाली ने देह व्यापार को लेकर सवाल उठाए हैं। समाज में देह व्यापार करने वाली महिलाओं स्थिति क्‍या है? समाज में उनके साथ कैसा व्‍यवहार होना चाहिए? क्‍या वे सम्‍मान की हकदार हैं? अपनी फिल्‍म गंगूबाई काठियावाड़ी के जरिए उन्‍होंने इन्‍हें उठाया है। प्रस्‍तुत फिल्‍म ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ प्रख्‍यात पत्रकार एस. हुसैन जैदी और जेन बोर्गेस द्वारा लिखित किताब माफिया क्‍वींस ऑफ मुंबई में गंगूबाई पर लिखी लघुकथा पर आधारित है। संजय लीला ने कहानी का विस्‍तार करने के साथ उसमें कुछ नई चीजें भी जोड़ी हैं। आज भी मुंबई के बदनाम इलाके कमाठीपुरा में वेश्‍याओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाली गंगूबाई की मूर्ति लगी हुई है।

यह कहानी हीरोइन बनने की तमन्‍ना पाले और प्‍यार में धोखा खाई बैरिस्‍टर की मासूम बेटी गंगा जगजीवन दास के गंगूबाई बनने की है, जिसका प्रेमी उसे कोठे पर हजार रुपये में बेच देता है। अभिनेता देवानंद की दीवानी गंगू रोती है बिलखती है फिर देह व्यापार करने को मजबूर होती है। इस दौरान एक पठान उसके साथ बर्बर और क्रूर व्‍यवहार करता है‍ जिसके कारण उसकी सूरत तो बिगड़ती ही है पेट में 15 टांके लगते हैं। वह पठान के बर्बर व्यवहार की शिकायत गैंगस्‍टर रहीम लाला (अजय देवगन) से करती है। यहां रहीम लाला से आशय अंडरवर्ल्‍ड डॉन करीम लाला से है। रहीम लाला पठान की सरेआम पिटाई करता है जिसके बाद गंगू का दबदबा हो जाता है। वहां से कोठे की मालकिन बनने से लेकर वेश्याओं के अधिकारों की लड़ाई वह कैसे लड़ती है कहानी इस संबंध में है।

संजय लीला भंसाली की फिल्‍में भव्‍य सिनेमाई अनुभव देती हैं। उनकी हर फिल्म किसी नए परिवेश में होती है और वे उस परिवेश के रंग, खूशबू, लोग और वातावरण को फिल्मों में ले आते हैं। यहां पर भी पिछली सदी के छठे दशक को पर्दे पर उतारने में उन्‍हें प्रोडक्‍शन टीम का पूरा सहयोग मिला है। यह फिल्‍म जबरन देह व्यापार करने को मजबूर की गई लड़कियों की व्यथा और तकलीफों को समुचित तरीके से उकरेती है।

फिल्‍म के आखिरी बीस मिनट उल्‍लेखनीय हैं। खास तौर पर आजाद मैदान में नारी विकास के मुद्दे पर आयोजित कार्यक्रम में दिया गया गंगूबाई का भाषण जिसमें वह वेश्याओं के अधिकारों की बात करती है। उसके बाद प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के साथ मुलाकात के दृश्‍य में वह साहिर लुधियानवी की उपरोक्‍त पंक्तियों को बोलती है। इस मुलाकात में वेश्‍याओं को कानूनी दर्जा देने की बात करती है। वह कहती है कि सजा तो बेचने और खरीदने वाले को मिली चाहिए, लेकिन मिलती किसको है उस बेगुनाह लड़की को। यह उन लड़कियों की अंदरुनी तकलीफ और पीड़ा को बयां करती है जो इस दलदल में धकेल दी जाती हैं।

फिल्‍म का पूरा दारोमदार आलिया भट्ट के कंधों पर है। यह उनके करियर का सबसे चुनौतीपूर्ण किरदार भी है। संजय लीला के मार्गदर्शन में उन्‍होंने संयत तरीके से गंगूबाई की भूमिका को निभाया है। सहयोगी भूमिका में आई सीमा पाहवा और इंदिरा तिवारी का उन्‍हें पूरा सहयोग मिलता है। अतिथि भूमिका में आए अजय देवगन अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब रहते हैं। पत्रकार की संक्षिप्‍त किंतु अहम भूमिका में जिम सरभ जंचे हैं। हालांकि रजियाबाई (विजय राज) के चरित्र को खुले तरीके से विकसित होने का मौका नहीं मिला है। फिर भी वह मिले दृश्‍यों में प्रभावशाली हैं। गंगू के साथ उनकी तकरार को ज्‍यादा रोचक बनाने की जरूरत थी।

फिल्‍म के संवाद कई जगह प्रभावशाली हैं। संजय लीला की बाकी फिल्‍मों की तरह नृत्‍य–गीत सम्‍मोहक हैं। नृत्‍य निर्देशकों ने उन्‍हें भव्‍य तरीके से पेश किया है। फिल्‍म की अवधि काफी ज्‍यादा है। उसे चुस्‍त एडिंटिंग से कम किया जा सकता था। मसलन फिल्‍म में गंगू का प्रेम प्रसंग लंबा खींच गया है। बहरहाल, फिल्‍म का क्‍लाइमेक्‍स बेहद नियोजित और भव्‍य तरीके से फिल्‍माया गया है। वह याद रह जाता है।

हिंदी फिल्‍मों में अक्‍सर भाषाई गलतियों को नजरअंदाज कर दिया जाता है। फिल्‍म के स्‍क्रीन पर नाम गंगुबाई लिखकर आता है जबकि यह गंगूबाई है। इस ओर भी ध्‍यान देने की जरूरत है।