नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अनुकूल मातृभाषा में चिंतन-वंदन का समय
मातृभाषा का चिंतन-वंदन व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के आत्मबल की उन्नति करता है। यह दूसरे पर निर्भरता से मुक्ति और आत्मनिर्भरता की राह खोलने वाला है। मातृभाषा में व्यवहार और शिक्षा किसी के बहिष्कार से परे स्वयं के स्वीकार की दिशा में जाना है। मातृभाषा वह है जिसे बालक सबसे पहले अपनी मां से सीखता है और फिर परिजनों के साथ उसका विकास करता है। इसके लिए उसे किसी प्रकार का अनावश्यक प्रयास नहीं करना पड़ता। सीखने की यह प्रक्रिया प्रतिदिन चलती रहती है।
इसी निज भाषा की ताकत को पहचानते हुए ही भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिंदी की उन्नति शीर्षक व्याख्यान में 1877 में कहा था- निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल...। यह वह समय था जब आधुनिकता के नाम पर कुछ लोगों में अंग्रेजी का आकर्षण पैदा हो रहा था। भारतेंदु द्वारा संकल्पित यह निज भाषा हिंदी एवं क्षेत्रीय भाषाएं ही थी, जिनकी उन्नति के बिना सुख-दुख, ज्ञान-विज्ञान, प्रेम-विवेक, मानसिक विकास, संवेदनात्मक विकास और व्यक्तित्व विकास संभव नहीं है।
अनेकता में एकता के सूत्र, व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के विकास के द्वार निज भाषा की उन्नति से ही जुड़ते-खुलते हैं। मातृभाषा प्रत्येक व्यक्ति को उसके परिवार, समाज, प्रदेश और देश से जोड़ती है, उनके बीच समरसता स्थापित करती है। वर्ष 1918 में हिंदी साहित्य समिति इंदौर के अधिवेशन में गांधी जी ने कहा था- आज अंग्रेजी सर्वव्यापक भाषा है, पर यदि अंग्रेज सर्वव्यापक न रहेंगे तो अंग्रेजी भी सर्वव्यापक न रहेगी। हमें अब अपनी मातृभाषा की उपेक्षा करके उसकी हत्या नहीं करनी चाहिए...।
भारतवर्ष सनातन ज्ञान परंपरा का केंद्र रहा है। विदेशी दासता के दौर में अनेक रूपों में ज्ञान की इस सनातन परंपरा को नष्ट करने के प्रयास होते रहे। ब्रिटिश दौर में मैकाले की शिक्षा नीतियों ने समूची भारतीय शिक्षा व्यवस्था को भिन्न-भिन्न रूपों में ध्वस्त किया। राष्ट्रीय भावना, राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक, वीर परंपरा, संत परंपरा, त्याग, सेवा भाव एवं जीवन मूल्य जैसी विभिन्न महत्वपूर्ण बातें शिक्षा से अलग हटा दी गई। स्वतंत्र भारत में भी शिक्षा नीतियों में हिंदी सहित भारतीय भाषाओं के स्थान पर अंग्रेजी का वर्चस्व बना रहा। अंग्रेजी अच्छे ज्ञान और अच्छी शिक्षा का पर्याय बनती चली गई। हमारी शिक्षा नीतियां बालक अथवा मनुष्य को एक संसाधन के रूप में देखती रही। वह उसे अच्छा व्यवसायी और बाजार के अनुरूप तो बनाती रही, किंतु मातृभाषा, परहित का भाव और भारत भाव से वह अधिकांशत: दूर होता चला गया।
आज भारतवर्ष भिन्न-भिन्न रूपों में विकास के मार्ग पर अग्रसर है। नया भारत, समर्थ भारत और सशक्त भारत आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहा है। ऐसे में यह नितांत आवश्यक है कि मातृभाषा शिक्षा एवं संस्कार का माध्यम बने। युवा भारत मातृभाषा के चिंतन के साथ-साथ उसके वंदन के लिए भी दृढ़ संकल्पित हो। वर्ष 1886 में एक पत्र में विदेशी विद्वान फ्रेडरिक पिकाट ने लिखा है- मैं संपूर्ण रूप से जानता हूं कि जब तक किसी देश में निजभाषा अक्षर सरकारी और व्यवहार संबंधी कार्यों में नहीं प्रवृत्त होते हैं, तब तक उस देश का परम सौभाग्य हो नहीं सकता।
क्या इस प्रकार के विभिन्न वक्तव्यों पर आज गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता नहीं है? ध्यातव्य है कि भारतवर्ष जनसंख्या की दृष्टि से विश्व का दूसरा सबसे बड़ा देश है। आज भी विभिन्न प्रदेशों में साक्षरता के आंकड़े कम हैं। आज भी शिक्षा एवं साक्षरता की दृष्टि से महिलाओं और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की स्थिति चिंताजनक है। आज भी विद्यालय और महाविद्यालयों से कई बच्चे बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं, जिसका बड़ा कारण अंग्रेजी माध्यम की कठिनता है। विभिन्न अध्ययन एवं शोध इस बात की पुष्टि करते हैं कि बालक अपनी मातृभाषा में अधिक सीखता है और सरलता से सीखता है। मातृभाषा में शिक्षा, मातृभाषा में काम और मातृभाषा का व्यवहार संपूर्ण साक्षरता की दिशा में भी कारगर सिद्ध हो सकता है।
सकारात्मक यह है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 शिक्षा व्यवस्था में बहुभाषा और मातृभाषा पर केंद्रित है। यह जहां एक ओर भारत केंद्रित है, वहीं दूसरी ओर बालक केंद्रित भी है। यह सर्वविदित है कि छोटे बच्चे अपने घर की भाषा/ मातृभाषा में सार्थक अवधारणाओं को अधिक तेजी से सीखते हैं और समझ लेते हैं। घर की भाषा आमतौर पर मातृभाषा या स्थानीय समुदायों द्वारा बोली जाने वाली भाषा है। जहां तक संभव हो कम से कम ग्रेड पांच तक और उससे आगे भी शिक्षा का माध्यम घर की भाषा/ मातृभाषा/ स्थानीय भाषा/ क्षेत्रीय भाषा होगी।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति एवं नए भारत की आवश्यकताओं के अनुरूप कुछ विश्वविद्यालयों ने मेडिकल एवं इंजीनियरिंग जैसे तकनीकी विषयों को भी हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में पढ़ाना शुरू किया है। पाठ्यक्रम की आवश्यकताओं के अनुरूप मातृभाषा अथवा स्थानीय भाषाओं में सामग्री उपलब्ध करवाना एक बड़ी चुनौती होगी, किंतु संकल्प से उसमें भी सफलता मिलेगी। मातृभाषा में वह शक्ति है जिसके सहारे बालक नैसर्गिक रूप से ज्ञानात्मक और विकासात्मक अवस्थाओं तक आसानी से पहुंच सकता है। विभिन्न देशों में उनकी शिक्षा व्यवस्था, उनका व्यवहार उनकी अपनी भाषाओं में ही होता है।
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी यह प्रविधान किया गया है कि हम अपनी मातृभाषाओं के व्यवहार में सम्मान महसूस करें। देशी-विदेशी सभी भाषाओं में ज्ञान का भंडार है, उन्हें सीखने में कोई बुराई नहीं है। लेकिन पहला सम्मान अपनी मातृभूमि और अपनी मातृभाषा के लिए आवश्यक है। मातृभाषा में बालक की सहज प्रकृति का निर्माण करने की क्षमता है, यह समरसता का सेतु है।