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 तापसी पन्नू की इस फिल्म में सब कुछ ब्लर है, स्पेनिश फिल्म का कमजोर रीमेक


यह साइकोलॉजिकल थ्रिलर फिल्म है, जिसमें तापसी दोहरी भूमिका में हैं। कहानी नेत्रहीन गौतमी (तापसी पन्नू) से शुरू होती है, जो खुद को फांसी लगाने जा रही है, तभी कोई आकर उस टेबल को गिरा देता है, जिस पर गौतमी फांसी लगाने के लिए चढ़ी थी। उसकी मौत हो जाती है।
दिल्ली में उसकी जुड़वां बहन गायत्री (तापसी पन्नू) को गला घुटने जैसा महसूस होता है। वह अपने पति नील (गुलशन देवैया) से कहती है कि उसकी बहन शायद मुसीबत में है। गौतमी के घर पहुंचने पर उसकी आत्‍महत्‍या का पता चलता है, पर गायत्री का मानना है कि उसकी बहन ने आत्महत्या नहीं की है, उसकी हत्या हुई है। उसे हर पल कमरे में किसी के होने का अहसास होता है। कोई उसका पीछा भी कर रहा है।
नील नहीं चाहता कि गायत्री तनाव ले, क्योंकि उसे भी गौतमी की तरह आंखों की बीमारी है, जिससे नेत्रहीन होने का खतरा है। धीरे-धीरे गायत्री की देखने की शक्ति भी कम हो रही है। क्या गायत्री का वाकई कोई पीछा कर रहा है, क्या वह सच का पता लगा पाएगी, इन्हीं बिंदुओं से होकर कहानी आगे बढ़ती है।
पवन सोनी और अजय बहल ने रूपांतरण लिखा है। साइकोलॉजिकल थ्रिलर फिल्म का मतलब ही होता है कि कहानी में रोमांच अंत तक बना रहे। हर 10-15 मिनट पर रोमांचक मोड़ आए। लगे कि शायद इसने ही हत्या की होगी, लेकिन वह गलत साबित हो। ब्लर उस कसौटी पर निराश करेगी। शुरुआत में ही इस बात का अंदाजा लग जाएगा कि कातिल कौन हो सकता है।
बीए पास और सेक्शन 375 फिल्मों का निर्देशन कर चुके अजय बहल इस बार कमजोर पड़ गये। थ्रिलर फिल्म होने के बावजूद शक की सूई किसी की ओर नहीं घूमती है। फिल्म जुड़वां बहनों पर थी, लेकिन गौतमी के पात्र को सतही तौर पर ही दिखाया गया है। गौतमी को केवल संवादों में समझा जा सकता है कि वह म्यूजिशियन थी, तनाव नहीं लेती थी, आत्महत्या नहीं कर सकती।
गौतमी ने फांसी का फंदा घर में क्यों लटका रखा था, उसकी कोई वजह साफ नहीं है। पुलिस का पक्ष बेहद कमजोर दिखाया गया है। जांच के नाम पर वह हर बार केस को बंद करने की बात करते हैं। गौतमी अपने जिस ब्वॉयफ्रेंड के साथ होटल में रुकी थी, वहां उसके ब्वायफ्रेंड की शक्ल किसी को याद नहीं, लेकिन आंखों पर पट्टी बांधी लड़की गौतमी को हर कोई पहचान लेता है।
गौतमी की हमशक्ल बहन गायत्री को देखकर कोई चौंकता भी नहीं है। ऐसे में जुड़वां बहन का एंगल ना भी होता तो कोई फर्क नहीं पड़ता। थ्रिलर फिल्म के बैकग्राउंड स्कोर पर काफी जिम्मेदारी होती है, लेकिन पहले हाफ के बाद केतन सोधा का बैकग्राउंड स्कोर कमजोर हो जाता है। एडिटर मनीष प्रधान इस फिल्म की अवधि को लगभग 20 मिनट कम कर सकते थे। पड़ोसी के कुछ सीन हैं, जो फिल्म में न भी होते तो फर्क नहीं पड़ता। सिनेमैटोग्राफर सुधीर कुमार चौधरी की सराहना करनी होगी, उन्होंने अंधेरे वाले दृश्यों में विजुअल के जरिए रोमांच बनाए रखा है।
तापसी पन्नू इस साइकोलॉजिकल थ्रिलर जॉनर में बहुत सहज हैं। वह बदला, दोबारा, गेम ओवर जैसी कई फिल्में कर चुकी हैं। ऐसे में उनके चेहरे के हावभाव में कोई नयापन नहीं है। गुलशन देवैया के भूमिका में भी गहराई नहीं है। उनके पात्र की परतें जब खुलेंगी, तो समझना मुश्किल होगा कि क्या सच था, क्या नहीं। कृतिका देसाई खान की भूमिका दिलचस्प है। वह जब स्क्रीन पर आती हैं, तो अहसास होता है कि उनके पात्र में कुछ छुपाकर रखा है।
हालांकि, लेखक उनके पात्र को विस्तार नहीं दे पाए। एसएम जहीर जैसे वरिष्ठ और बेहतरीन कलाकार की प्रतिभा का समुचित प्रयोग फिल्म में नहीं हुआ है। पांच से छह पात्रों में जो सबसे ज्यादा प्रभावित करेगा, वह हैं दीपक की भूमिका में अभिलाष थपलियाल। उनके बारे में ज्यादा बताना सही नहीं होगा, क्योंकि कहानी का रोमांच उन्हीं की वजह से है। अभिलाष याद रह जाएंगे।