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कलात्मक अभिव्यक्ति के नाम पर फिल्म आदिपुरुष में अराजकता


अनंत विजय। पिछले दिनों रामनगरी अयोध्या में निर्देशक ओम राउत की फिल्म आदिपुरुष का एक उत्सुकता जगानेवाला अंश सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किया गया। इस अंश में फिल्म के प्रमुख पात्रों को दिखाया गया है।ये फिल्म रामायण महाकाव्य पर आधारित होने का दावा किया जा रहा है। इसमें राम, सीता, रावण, हनुमान आदि के किरदार और उनकी वेशभूषा की झलक मिलती है। संवाद और दृष्यों की भी। इस फिल्म में प्रभु श्रीराम, हनुमान और रावण की वेशभूषा को लेकर विवाद हो गया है। जिस तरह से प्रभु श्रीराम का गेटअप तैयार किया गया है उससे ये स्पष्ट है कि फिल्मकार ने लोक में व्याप्त उनकी छवि से अलग जाकर उनको चित्रित किया है।
भारतीय जनमानस पर श्रीराम की जो छवि अंकित है वो बेहद सौम्य, स्नेहिल और उदार है। तुलसीदास जी ने विनय पत्रिका में उनकी इस छवि पर पद लिखे। ‘‘नवकंज-लोचन कंज-मुख, कर-कंज, पद कंजारुणं/ कंदर्प अगणित अमित छवि, नवनिल नीरद सुंदरं, पटपीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक सुतावरं।‘ अर्थात उनके नयन खिले कमल की तरह हैं। मुख, हाथ और पैर भी लाल रंग के कमल की तरह हैं। उनकी सुंदरता की अद्भुत छटा अनेकों कामदेवों से अधिक है। उनके तन का रंग नए नीले जलपूर्ण बादल की तरह सुंदर है।
पीतांबर से आवृत्त मेघ के समान तन, विद्युत के समान प्रकाशमान है। सिर्फ विनय पत्रिका में ही नहीं तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस से लेकर अपनी अन्य रचनाओं में भी श्रीराम को इसी रूप में प्रस्तुत किया है। वाल्मीकि ने भी। इन्हीं के आधार पर राजा रवि वर्मा ने श्रीराम की तस्वीर बनाई जो विश्व में प्रचलित है। इसके अलावा गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित कल्याण पत्रिका में भी श्रीराम और राम दरबार की तस्वीरें प्रकाशित हुआ करती थीं। कवर की दूसरी तरफ प्रकाशित इन चित्रों को बी के मित्रा, जगन्नाथ प्रसाद और भगवान नाम के तीन चित्रकार बनाया करते थे। इन चित्रों को लोग इतना पसंद करते थे कि उस पृष्ठ को काटकर फ्रेम करवा कर सहेज लेते थे।
रामानंद सागर ने जब रामायण टीवी धारावाहिक का निर्माण किया था तो पंडित नरेन्द्र शर्मा की सलाह पर उन्होंने अपने पात्रों की वेशभूषा तय करने के पहले इन चित्रों का गहन अध्ययन किया था। इस वजह से रामायण धारावाहिक में टीवी पर ये पात्र आए तो ये लोक में व्याप्त छवि से मेल खाते हुए थे। ऐसा प्रतीत होता है कि फिल्म आदिपुरुष के निर्देशक ने इस बात का ध्यान नहीं रखा। तकनीक के बल पर श्रीराम को सुपरमैन बना दिया। सौम्यता को आक्रामकता से विस्थापित करने का प्रयास हुआ।
अयोध्या में जो टीजर जारी किया गया है उसमें रामसेतु पर लंका की ओर बढ़ते श्रीराम को दिखाया गया है। नेपथ्य से आवाज आती है, ‘आ रहा हूं मैं, आ रहा हूं मैं, न्याय के दो पैरों से अन्याय के दस सर कुचलने।‘रामकथा में तो इस तरह की आक्रामकता है ही नहीं। श्रीराम तो लंका की धरती पर पहुंचकर अपने सहयोगियों से पूछते हैं कि अब क्या करना चाहिए। इतने लोकतांत्रिक हैं श्रीराम। तुलसीदास लिखते हैं कि जब ये तय हो जाता है कि अंगद को दूत के रूप में रावण के दरबार में जाना है तो श्रीराम कहते हैं कि इस तरह से संवाद करना कि मेरा भी कल्याण हो और रावण का भी। वाल्मीकि ने लिखा है कि जब श्रीराम लंका की धरती पर पड़ाव डालते हैं तो रावण अपने जासूसों को उनके शिविर में भेजता है। श्रीराम के साथी रावण के उन जासूसों को पकड़ कर मारते पीटते हैं।
जब श्रीराम को पता चलता है तो वो उनको वापस रावण के पास भेज देते हैं। ये जासूस भी रावण के पास पहुंचकर प्रभु श्रीराम की दयालुता का वर्णन करते हैं। राम के चरित्र के साथ आक्रामकता जोड़कर अकारण उनको सुपरमैन बनाने की कोशिश की गई है जबकि राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। वो कोई अफगानिस्तान से आनेवाले आक्रांता नहीं कि चीखते चिल्लाते युद्ध के लिए बढ़े जा रहे हैं। कहानी और संवाद लिखते समय राम के इस उद्दात चरित्र का ध्यान रखा जाना चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक और निर्देशक ने दृश्यों को अति नाटकीय बनाने के चक्कर में श्रीराम की चारित्रिक विशेषताओं और गुणों का ध्यान नहीं रखा। ऐसा या तो अज्ञानता के कारण हुआ या विदेशी फिल्मों में तकनीक से पात्रों को आक्रामक और बलशाली दिखाने की नकल के कारण।
दूसरा पात्र है रावण। जिसकी भूमिका में हैं अभिनेता सैफ अली खान। फिल्म आदिपुरुष के अंश में रावण को देखकर कुछ लोग ये कह रहे हैं कि ये रावण कम खिलजी ज्यादा लग रहा है। खिलजी लगे या कोई और लेकिन रावण की लोक में प्रचलित छवि से बिल्कुल अलग है। रावण के गुणों के बारे में वाल्मीकि और तुलसीदास दोनों ने विस्तार से लिखा है। लंकेश इतना बड़ा और पराक्रमी राजा था कि उसने तीनों लोक को जीता था। वो बहुत बड़ा शिव भक्त था, तपस्वी था लेकिन अहंकारी था। फिल्म आदिपुरुष में जो रावण बनाया गया है वो अहंकारी तो बिल्कुल नहीं दिखता है, हां उसके चेहरे पर, उसकी संवाद अदायगी या हावभाव में कमीनापन अवश्य दिखता है। रावण अहंकारी अवश्य था लेकिन उसके कमीनेपन का चित्रण न तो वाल्मीकि ने किया है और न ही तुलसीदास ने।
आदिपुरुष फिल्म के निर्देशक ने किस तरह से रावण के चरित्र को गढ़ा है, उनका सोच क्या था ये तो वही बता सकते हैं। लोक में व्याप्त लंकेश की छवि को इस तरह से भ्रष्ट करना और फिर उसका हास्यास्पद तरीके से बचाव करके फिल्म से जुड़े लोग अपनी अक्षमता को ढंकने का प्रयास कर रहे हैं। प्रभु श्रीराम और रामकथा के पात्रों को लेकर वाल्मीकि का जो सोच था या जो तुलसी की अवधारणा थी उसका शतांश भी इस फिल्म में नहीं दिखाई दे रहा है। फिल्म में हनुमान की वेशभूषा को भी आधुनिक बनाने के चक्कर में निर्माता- निर्देशक ने क्या गड़बड़ियां की हैं ये फिल्म प्रदर्शित होने के बाद पता चलेगी। फिलहाल तो जो कुछ दृश्य है जिसको लेकर अनुमान लगाया जा सकता है कि वहां भी गड़बड़ी हुई है।
कलात्मक अभिव्यक्ति के नाम पर पौराणिक आख्यानों के चरित्रों को इस तरह से प्रदर्शित कर अपमानित करने की छूट नहीं दी जा सकती है। लोक में व्याप्त छवि से छेड़छाड़ करके फिल्में सफल नहीं हो सकती हैं। कुछ दिनों पूर्व प्रदर्शित फिल्म सम्राट पृथ्वीराज में भी लोक में प्रचलित छवि से अलग दिखाया गया। परिणाम सबके सामने है। अगर उस फिल्म में चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने लोक में व्याप्त कथाओं के आधार पर पृथ्वीराज का चरित्र गढ़ा होता तो सफल हो सकते थे। चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने तो पृथ्वीराज रासो पर खुद को केंद्रित रखा लेकिन आदिपुरुष के लेखक और निर्देशक न तो वाल्मीकि के करीब जा सके और न ही तुलसी के।
संभव है कि उन्होंने अंग्रेजी की कोई फिल्म देखी होगी और उनको लगा होगा कि तकनीक का प्रक्षेपण करके हिंदी में भी इस तरह की फिल्म बनाई जाए। इन दिनों हिंदू पौराणिक आख्यानों पर आधारित फिल्में दर्शकों को पसंद आ रही है। निर्माताओं ने सोचा होगा कि रामकथा को तकनीक के सहारे कहा जाए तो सफलता के सारे कीर्तिमान ध्वस्त किए जा सकते हैं। इस फिल्म से जुड़े लोग ये भूल गए कि राम का जो उदात्त चरित्र भारतीय जनमानस पर अंकित है उसके विपरीत जाने से अपेक्षित परिणाम नहीं मिलेगा। अगर गंभीरता से फिल्मकार काम करना चाहते थे तो उनको गीताप्रेस गोरखपुर स्थित लीला चित्र मंदिर जाकर वहां लगी तस्वीरों को देखना चाहिए था, इससे उनकी फिल्म के पात्रों को प्रामाणिकता मिलती और लोक को संतोष और उनको सफलता।