जनसंघ से लेकर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की अब तक की यात्रा पर प्रकाशित एक पुस्तक में दावा किया गया है कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 2004 के लोकसभा चुनाव के नतीजों के पहले ही राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की हार भांप ली थी और उन्होंने कद्दावर नेता प्रमोद महाजन से बोरिया बिस्तर बांधकर विपक्ष में बैठने की तैयारी करने को कहा था।
केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव और अर्थशास्त्री इला पटनायक द्वारा संयुक्त रूप से लिखी गई पुस्तक ‘‘भाजपा का अभ्युदय’’ के हाल ही में प्रकाशित हिंदी संस्करण में यह भी दावा किया गया है कि 2004 के चुनाव में भाजपा को संगठन और सरकार के बीच संवादहीनता महंगी पड़ी थी जिससे सीख लेते हुए उसने 2014 में सत्ता में आने के बाद सरकार और संगठन में बेहतर तालमेल पर ध्यान केंद्रित किया और फिर 2019 के चुनाव में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई।
पुस्तक के मुताबिक, भाजपा ने समय के साथ अपने अनुभवों से सीख लेते हुए संख्यात्मक और भौगोलिक स्वरूप धारण किया और आजादी के 75वें वर्ष में वह राष्ट्रीय राजनीति की धुरी बन गई है।
पुस्तक के उपसंहार में लिखा गया है, ‘‘…भाजपा अब वह पार्टी नहीं रही जो भारतीय राजनीति में अलग-थलग पड़ी हो। आगे बढ़ते हुए भाजपा के समर्पित और अनुशासित कैडर, इसके गैर-वंशवादी नेतृत्व, पार्टी का आंतरिक लोकतंत्र, इसकी अनथक सक्रियता, हर तीन साल में नए सदस्यों के प्रशिक्षण और प्रवेश ने इसे देश के अन्य राजनीतिक दलों पर बढ़त दिलाई है।’’
साल 2004 के लोकसभा चुनाव में वाजपेयी के नेतृत्व वाले राजग की हार पर पुस्तक में एक अलग अध्याय है। इसमें हार के कारणों की विस्तृत जानकारी दी गई है।
पुस्तक के मुताबिक, ‘‘इंडिया शाइनिंग’’ और ‘‘फील गुड’’ जैसे भाजपा के चुनावी नारों पर कांग्रेस का ‘‘आम आदमी को क्या मिला?’’ नारा और ‘‘कुछ लोग अच्छा फील कहते हैं, कुछ लोगों के पास आप लोगों के लिए अच्छी फीलिंग है’’ का संदेश भारी पड़ गया।
पुस्तक के मुताबिक, भाजपा अपनी जीत को लेकर आश्वस्त थी और चुनावी नतीजों के एक दिन पहले प्रमोद महाजन ने वाजपेयी के सामने भारत का नक्शा लेकर यह व्याख्या की कि भाजपा किस तरह 1999 के चुनावों के मुकाबले कहीं अधिक सीटें जीतने वाली है।
इस पर वाजपेयी ने उनसे ‘‘बोरिया बिस्तर बांधने और विपक्ष में बैठने की तैयारी करने को कहा था‘‘।
ज्ञात हो कि 1999 से 2004 के बीच वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा ने पहली गैर-कांग्रेसी सरकार चलाई, जिसने अपना कार्यकाल पूरा किया था।
इसके बाद 2004 के चुनाव में गठबंधन की हार का विश्लेषण करते हुए पुस्तक में लिखा गया, ‘‘भाजपा के संगठन और सरकार के बीच संवादहीनता महंगी पड़ी थी। इस अवधि में पार्टी में अध्यक्ष पद पर नियमित रुप से परिवर्तन होते रहे थे संगठन में इसका अच्छा संदेश नहीं गया था। इसलिए, संगठनात्मक क्षमता होते हुए भी पार्टी सरकार के काम को लोगों तक सकारात्मक रूप से पहुंचा नहीं पाई।’’
इस हार का एक कारण यह भी बताया गया है कि पार्टी ने विज्ञापन पर अधिक ध्यान दिया लेकिन जमीनी स्तर पर वह लोगों से जुड़ने में नाकाम रही और कई सुधारों के बावजूद भाजपा उन्हें प्रभावी ढंग से लोगों में पहुंचा नहीं सकी।
पुस्तक के अध्याय ‘‘सामंजस्य: संगठन और सरकार’’ में उल्लेख है कि 1999 से 2014 के वाजपेयी के कार्यकाल में ‘‘दुर्भाग्य से’’ संगठन और सरकार के बीच जुड़ाव गायब था।
इसमें कहा गया है, ‘‘2014 में जब पार्टी दोबारा सत्ता में आई तो तब भाजपा ने सांगठनिक मोर्चे पर सक्रिय रूप से काम किया ताकि इसकी गतिविधियों और इसके अभियानों के बीच समन्वय हो सके।
पुस्तक में विस्तार से बताया गया है कि कैसे सरकार के फैसलों को जमीन पर उतारने में भाजपा संगठन ने प्रभावी भूमिका निभाई और 2014 के बाद पार्टी और सरकार ने मिलकर काम किया।
पुस्तक में बताया गया है कि सरकार की उपलब्धियां और उन्हें जमीन तक उतारने के लिए संगठन के साथ उसके तालमेल का ही नतीजा था कि 2014 में भाजपा को जहां 31 प्रतिशत मत मिले थे, वहीं 2019 में बढ़कर वह 37.4 प्रतिशत हो गये। इतना ही नहीं, लंबे समय तक शहरी भारत की पार्टी होने के आरोप झेलने वाली भाजपा के मत प्रतिशत में ग्रामीण इलाकों में 2014 के मुकाबले 2019 में 7.3 प्रतिशत का इजाफा हुआ।
हिंद पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद पत्रकार मंजीत ठाकुर ने किया है।